द्रविड़ शैली

1.इसका विस्तार कृष्णा से कन्याकुमारी तक तथा कालखंड- 7वीं से 18वीं शताब्दी तक थी।
2.द्रविड़ शैली की पहचान विशेषताओं में- प्राकार (चहारदीवारी), गोपुरम (प्रवेश द्वार), वर्गाकार या अष्टकोणीय गर्भगृह (रथ), पिरामिडनुमा शिखर, मंडप (नंदी मंडप) विशाल संकेन्द्रित प्रांगण तथा अष्टकोण मंदिर संरचना शामिल हैं।
3.इस शैली में आमलक एवं कलश के स्थान पर स्तूपिका बनी होती थी।
3.इन मंदिरों में एक जलाशय का सदैव निर्माण किया जाता था।
4.इन मंदिरों के चारों ओर चहारदीवारी होती थी।
5.इनके प्रवेश द्वार भव्य होते थे जिन्हें गोपुरम कहते है।ये गोपुरम मुख्यतः पांड्य शासको की विशेषता हैं।
6.इस शैली के मंदिर काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं।प्रांगण में छोटे -बड़े मंदिर, कक्ष तथा विशाल जलाशय होते हैं।
7. इस शैली के मंदिर में चार से अधिक पार्श्व होते है।
8.पल्लवों ने द्रविड़ शैली को जन्म दिया, चोल काल में इसने उँचाइयाँ हासिल की तथा विजयनगर काल के बाद से यह ह्रासमान हुई।
9.तंजौर का बृहदेश्वर मन्दिर इस शैली का सर्वोत्तम मन्दिर हैं।
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