नागर शैली

उत्तर भारत में मंदिर स्थापत्य शैली को नागर शैली कहते हैं यह  उत्तर भारत में #हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत तक  प्रचलित थी। इस शैली का समय #7वी से 13वीं  शताब्दी तक माना जाता हैं। इसे आर्य शैली , पर्वती शैली (हिमालय क्षेत्र ),लाट शैली (गुजरात ) , कलिंग शैली (उड़ीसा) के नाम से जाना जाता हैं।नागर शैली की एक उपशैली #भूमिज है भूमिज शैली के उदाहरण मालवा, राजस्थान ,गुजरात आदि जगहो से मिलते हैं। नागर मंदिर की आधारभूत योजना वर्गाकार होती है ।वर्तुलाकार आमलक, वक्र रेखीय शिखर एवं स्वास्तिक आकार की योजना नागर शैली की विशेषता है ।शिखर के आधार पर नागर शैली को लैटिना या रेखा प्रसाद, फमसाना एवं बल्लभी प्रकार में विभाजित किया गया है।
#इस शैली के मंदिर एक विशाल चबूतरे पर स्थित होते थे ,जिसमे कोई घुमावदार चहारदीवारी नही होती थी। घुमावदार शिखर को गुम्बद कहा जाता हैं। मंदिर का गर्भगृह शिखर के नीचे स्थित होता हैं।नागर शैली के मंदिर आधार से शिखर तक चतुष्कोणीय होते हैं।
ये मंदिर उँचाई में आठ भागों में बाँटे गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- मूल (आधार), गर्भगृह मसरक (नींव और दीवारों के बीच का भाग), जंघा (दीवार), कपोत (कार्निस), शिखर, गल (गर्दन), वर्तुलाकार आमलक और कुंभ (शूल सहित कलश)।
 नागर शैली की कुल 20 उपशैली थी जिनमें सर्वत्र सर्वतोभद्र  एवं वर्तुल भी थी ।
इस शैली के मंदिरो का निर्माण #बंगाल के पाल एवं सेन शासक, ओडिशा के चेदी, गंग वंश  #मध्य प्रदेश के चन्देल,कल्चुरी, परमार वंश,#उत्तर प्रदेश के प्रतिहार, गढ़वाल, #गुजरात के चालुक्य, सोलंकी, #दिल्ली के चौहान शासको ने करवाया।
Source.Itihas Both Facebook Page

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